मन भरा भरा सा है और खाली है घर. घोसले के कुछ तिनके इधर कुछ उधर. आंगन में जो चेहकती थी चिड़ियाँ, क्यूँ नहीं आती अब मेरे दर पर.त्योहारों का मौसम है,क्यूँ फिर उल्लास नहीं.ख़्यालों में, उम्मीदों में, ज़िक्रो में है वो,पर अब मेरे पास नहीं.परिंदे तो उड़ेंगेंमिले हैं उन्हें नए नए पर.मन भरा भराContinue reading “ख़ाली सा मन!”